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कंकाल (उपन्यास) द्वितीय खंड : जयशंकर प्रसाद (1) एक ओर तो जल बरस रहा था, पुरवाई से बूँदें तिरछी होकर गिर रही थीं, उधर पश्चिम में चौथे पहर की पीली धूप ...